Sunday, September 12, 2010

चाँद की चांदनी !


चाँद की चांदनी !
चांदनी जा कर चाँद से कहो,
यूँ न इतराए इतना वह,
हमारे चाँद यहाँ नहीं है तो क्या,
इस तरह खिड़की में आकर हमें चिडाये ना वह /

अभी अगर इसी तरह बाहें फैलाये वोह खड़ा है,
तो सिर्फ इसलिए क्यूंकि हमने  मना नहीं किया है,
काले बदल जब गुस्से से फ़ैल जायेंगे आसमान में,
अपने होने का एहसास भी नहीं जता पायेगा वह /

हम तो वैसे ही दुखी हैं के 'ये'  नहीं है,
वैसे ही कमरे के रौशनी बंद किये बैठे हैं,
पर ऐ- चांदनी तुम्हारे चाँद की गुस्ताखी  तो देखो,
तुम्हे हमारे बिस्तर तक पहुंचा रहा है /

इतने निर्दयी तो ना बनो तुम लोग,
जो हमारे अकेलेपन पर मज़े कर रहे हो,
करवाचौथ जो आने वाली है उस दिन,
एक इसी चाँद ही की पूजा कर पाएंगे हमारा चाँद तो है ही नहीं यहाँ...

सूना कमरा, सूना घर, सूना मन है मेरा,
तन्हाई अँधेरी रातों में उनकी यादें बस हैं,
उन्हें तो इस तरह जगमगा कर हमसे दूर ना करो तुम,
यहाँ उनकी यादों में जीने दो तुम जाओ कहीं और हटकेले करो /

नेहा श्रीवास्तव-कुल्श्रेस्थ
भारतीय
घाना

1 comment:

  1. नेहा जी,

    दोनों कविताएँ अच्छी है....कविता केवल एक घटना या पल के लिए होती है....आपने लिखने के पीछे के कारण बता कर उसका महत्त्व बढाया है.....

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