
hi,
…I wud like u to read one of my latest poem, based on my son’s hospitalization…almost 5 yrs back….life was normal till then….a tremor rocked our life, but now its smooth again….though baby is not ok..lekin life is…we have adjusted and accepted it as part of our life…
नन्ही कलि
नन्ही कलि जैसे संसार को देखने के लिए, अपना सर उठाती है,
ठीक वैसे ही मेरे नन्हे की आँखें थी टुक टुकी वाली खामोश, नींद की आगोश में/
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नयी अनछुई कलि की लाली, सुर्ख रंग की, पहली बार संसार में आती है,
ठीक वैसे ही मेरे चुनमुन की कांति थी, बेदाग, चमकदार/
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कलि का वह कवच में से निकलना, वह चटकदार, तेज वाली उसकी पंखुडियां,
ठीक वैसे ही थी मेरे ठाकुर की काया , सूर्य की किरण जैसी../
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पर हमें नन्ही कलि से प्यार होता है..कुछ ज्यादा ही...,
काट के उसे सजा लेते हैं गमलों में
वैसे ही एक कलि को निहार रही हूँ मैं अस्पताल में,
कांच की दीवार के पीछे से ...मैं दोनों की मासूमियत पड़ रही हूँ,
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NICU में मेरा बेटा सो रहा है,, नालियों के बीच, मशीनों के बीच खोया हुआ है,
कलि भी गमले में शायद सोच रही है, अपनी माँ के अंचल को तरस रही है,
उसका पौधा भी बहार शायद उसकी राह तक रहा है,
अगली कलि को खिलाने से डर रहा हो,
खोने का एहसास उसे भी है मुझे भी..खोना आसान है, असमंजस में जीना कठिन है........
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नन्हा सा बिटउ पहले पहेल कैसा होता है मुझे मालूम नहीं,
एक दिन का बच्चा भूक से बिलकता कैसे शांत होता है माँ की गोद में मुझे मालूम नहीं,
एक हफ्ते के बेटे की छट्टी कैसे होती है, मुझे एहसास नहीं,
पहली बार पानी में नहलाना कैसा होता है मुझे पता नहीं...
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पता है तो यह की मेरा ठाकुर NICU में सोया हुआ था,
एक महिना मैं ने उसे कांच से निहारा है,
साफ़, कीटाणु रहित कपडे पहेना के, माँ के नसीब होता है चौबीस घंटे में दो क्षण का सुकून ,
जब कांच की दीवार के अन्दर जाकर एहसास उसका ले पाती है, सांस उसकी महसूस कर पाती हैं,
हाथ पीछे बांधे, कैमरे की कैद में, मैं उसे देख लेती...
FACE- मास्क लगे होंटों से मैं उसे पुचकार के, आँखों की रौशनी धूमिल होती आसुंओं के पीछे से,
अपने बेटे को उसके पिता का और मेरा प्यार दे आती...
***
बस उस क्षण के लिए फिर हम दोनों,
कांच की दीवार के पीछे से, हर आने जाने वाले को अपना मासून दिखाते,
आसुंओं को मुस्कराहट के पीछे छिपाए खड़े रहते,
***
एक महीने का बेटा जब अपने हाथ में लिया, आज तक वोह वैसा ही नज़र आता है,
ना जाने श्रुश्ठी कैसे रच जाती है...कैसे रंगीन और रंग- हीन हो जाती है,
हर आते जाते दिन में हर समय कहीं न कहीं एक नन्ही कलि खिल जाती है.....
नेहा कुल्श्रेस्थ-श्रीवास्तव.
९:१५प्म,घाना,वेस्ट अफ्रीका
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